श्लोक - १८७
यो वा मधुरवाक्येन स्नेहमन्यैर्न वर्घयेत् ।
परोक्षनिन्दकस्यास्य भजेन्मित्रममित्रताम् ॥
Tamil Transliteration
Pakachchollik Kelirp Pirippar Nakachcholli
Natpaatal Thetraa Thavar.
Section | भाग–१: धर्मकाण्ड |
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Chapter Group | अधिकार 011 to 020 |
chapter | परोक्षनिन्दावर्जनम् |